Saturday 16 September 2017

समय के साथ साथ परिवेश में बदलाव आना किसी भी समाज में आम बात है| परिवेश के साथ साथ भाषा के स्तर में बदलाव आना भी स्वाभाविक है| आज से पचास साठ साल पहले जो भाषा बोली जाती थी और आज जिस तरह की भाषा बोली जाती है उसमें जमीन आसमान का अंतर है चाहे वह घर में बोली जा रही आम बोलचाल की भाषा हो या संसद में प्रयोग की जा रही संवैधानिक भाषा| एक बडा बदलाव तो आया है कई बार प्रसंग के अनुसार शब्दों के मतलब भी बदल जाते हैं|

ऐसे ही कुछ शब्दों के बदलते अर्थों पर मैने भी गौर किया जैसे अंग्रेजी में एक शब्द है-“इन्टलैक्चुअल” जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बुद्धिजीवी व्यक्ति’, लेकिन जिस प्रकार से इस शब्द का उपयोग किया जा रहा है, इन्टलैक्चुअल  को भी खुद पर शर्म आ जाये|राजनीतिक परिचर्चा में शामिल हुए एक खास तबके के लोगों ने बुद्धिजीवी व्यक्ति की छवि कुछ अलग ही ढंग से परिभाषित की है| इनके अनुसार इन्टलैक्चुअल वो लोग हैं जो एसी कमरे में बैठते हैं और व्हिस्की पीकर अंग्रजी में विभिन्न विषयों पर टिप्पणी देते हैं|

“सेक्युलर” शब्द का तो और भी बुरा हाल है| गाली और अपशब्द की तरह प्रयोग किया जा रहा है|बेचारे सेक्युलर इधर उधर छिपते छिपाते फिर रहे हैं| उन्हें क्या पता था कि उस देश में उन की ये हालत हो जायेगी जिसकी नींव ही धर्म निरपेक्षता के आधार पर रखी गयी थी| जिसका संविधान उसे ‘सेक्युलर राष्ट्र’ घोषित करता है जिसका मतलब राष्ट्र और धार्मिक संस्थाओं के पृथक्करण से है|बहरहाल,जिन्होंने इस शब्द के मायने और प्रसंग बदल दिये हैं उन्हें कोई लेना देना नहीं है सेक्युलरिज्म शब्द के अर्थ और उसमें अंतर्निहित भावना व बोध से|

लिबरलों का हाल भी कुछ कुछ ऐसा ही है, उन्हें तो जरा भी भनक न थी कि उदारवादी होना इस कदर महंगा पड जायेगा| लिबरलिज्म का इतिहास तो बहुत पुराना है|उदारवाद ने सत्रहवीं सदी में राजनीति विज्ञान को एक नयी दिशा दिखाई थी | यह सिर्फ राजनीति या अर्थव्यवस्था के किसी सिद्धांत तक सीमित नहीं है, उदारवाद तो जीने की एक शैली समझी जाती रही है और आज हाल यूं हैंं कि पूरी कम्यूनिटी ही विलुप्ति के कगार पर  है| अब तो लिबरल पार्टियों का दौर भी गया सा लगता है|

दरअसल इन शब्दों के भाषायी स्तर पर पतन का कारण लोगों का सीमित ज्ञान और बाइनरी दृष्टिकोण है| ये तबका “या तो ऐसा होगा या वैसा” वाली विचारधारा के अधीन हैं| ये लोग मध्यमार्ग की धारा से सरोकार नहीं रखते या फिर शायद अनजान हैं| ये लिबरल और स्यूडो-लिबरल में फर्क नहीं समझते और समस्या यहीं से शुरू होती है| जब तक लिबरलिज्म को धर्म के चश्में से देखा जायेगा, उसका वास्तविक अर्थ समझ नहीं आयेगा

ज्ञान के अभाव में शब्दों का उपयोग कुछ लोगों द्वारा मनमुताबिक कर लिया जाता है और वही ट्रेंड बन जाता है|शब्दों का अबोधगम्य प्रयोग और भाषा का इस प्रकार से पतन बेहद अफसोसजनक है|

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