हमारी हिंदी सजीव भाषा है। इसी कारण,यह पहले अरबी,फारसी आदि के संपर्क में आकर उनके व अब बाद में अंग्रेजी के भी शब्द ग्रहण करती जा रही है। इसे दोष नहीं, गुण ही समझना चाहिये ; क्योंकि अपनी इस ग्रहणशक्ति से हिंदी अपनी वृद्धि कर रही है, ह्रास नहीं।ज्यों-ज्यों इसका प्रचार बढेगा, त्यों-त्यों इसमें नये शब्दों का आगमन होता जायेगा।क्या भाषा की विशुद्धता के किसी भी पक्षपाती में यह शक्ति है कि वह विभिन्न जातियों के पारस्परिक संपर्क को न होने दे या भाषाओं की सम्मिश्रण-क्रिया में रूकावट पैदा कर दे? यह कभी संभव नहीं। उपर्युक्त प्रक्रियाएं स्वाभाविक हैं। हमें तो केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि इस सम्मिश्रण के कारण हमारी भाषा अपने स्वरूप को तो नष्ट नहीं कर रही - कहीं अन्य भाषाओं के बेमेल शब्दों के मिश्रण से अपना रूप तो विकृत नहीं कर रही। अभिप्राय यह है कि दूसरी भाषाओं के शब्द,मुहावरे आदि ग्रहण करने पर भी हिन्दी,हिन्दी ही बनी रही है या नहीं, बिगडकर वह कुछ और तो नहीं होती जा रही?
स्रोत- अज्ञात
स्रोत- अज्ञात
No comments:
Post a Comment