कभी कभी लगता है कि भारत अतिवाद की वजह से आगे नहीं बढ पा रहा है। धार्मिक,भाषीय और जातिगत विविधता के साथ ही व्यवहारिक विविधता भी है जो कि कहींं कहींं एक्सट्रीमिज्म के रूप में देखने को मिलता है।
अभी हाल ही का कावेरी विवाद देख लें। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश क्या आया पूरा बेंगलोर आग से झुलस उठा। सम्स्या के निराकरण के और भी तरीके हैं। अतिवादी विचारधारा की वजह से हालात बेकाबू हो गये। कश्मीर में तो हालात सर्वव्यापी हैं जो अतिवादी तत्वों का गढ है। हरियाणा में बेबुनियाद जाट आरक्षण कैसा रूप ले चुका है हम देख ही चुके हैं।
अब अतिवादी लक्षणों का दूसरा उदाहरण भी देख लें। भारत में उडीसा नाम का एक राज्य है। ये राज्य कभी भी Limelight में नहीं आता। अगर कोई मुझसे भारत के सारे राज्यों के नाम बताने को कहे तो यह राज्य सब से आखिर में याद आयेगा, कई बार तो याद ही नहीं आता। हर राज्य का नाम लेते ही वहां की तस्वीर दिमाग में छप जाती है, सिर्फ उडीसा को छोड कर क्यूंकि कोई तस्वीर है ही नहीं।
उडीसा की उप्लब्धियों की बात करें तो ये राज्य भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। यहां का HDI भी निराशाजनक है। शहरीकरण, इंडस्ट्रियलाइजेशन, रोजगार भी कोई संतोषप्रद नहीं हैॆं। अधिकतर गांवों में मूलभूत सुविधाएं भी नहींं हैं खासकर जनजातीय इलाकों में। अस्पताल 40-50 किमी दूर हैं ऐसे इलाकों में। अभी कुछ दिनों पहले एक ग्रामीण को अपनी पत्नी का शव 10 किमी कंधों पर ढोकर ले जाना पडा। अंदाजा लगाया जा सकता है किस हद तक स्थिति गंभीर है।
अब इन सब के पीछे दो कारण हैं और दोनो ही पूरी तरह वाजिब हैं।पहला तो राज्य प्रशासन ही नाकामयाब रहा है। वर्ष 2000 से बीजू जनता दल की सरकार है।पटनायक जी पूरी तरह फेल रहे हैं बतौर मुख्यमंत्री।
दूसरा है लोगों का अतिवादी रवैया। उन्हे इस चीज की आदत पड गयी है। वस्तुस्थिति के इस कदर अनुकूल हो गये हैं कि उन्हें सब कुछ नार्मल लगने लगा है। अब सरकार पर पूरा दोष भी कैसे मढा जाये जब लोग B.P.L. से ऊपर आना ही नहीं चाहते। और ऐसा भी नहीं है कि उडीसा में संसाधनों की कमी है। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है, समुद्र तट रेखा है। अगर पुणे,कोयंबटूर,हैदराबाद में सौफ्टवेयर हब बन सकता है तो भुवनेश्वर में क्यूं नहीं।
जरूरत बस बीमारू मानसिकता को बदलने की है और status quo की परंपरा को तोडने की।
अभी हाल ही का कावेरी विवाद देख लें। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश क्या आया पूरा बेंगलोर आग से झुलस उठा। सम्स्या के निराकरण के और भी तरीके हैं। अतिवादी विचारधारा की वजह से हालात बेकाबू हो गये। कश्मीर में तो हालात सर्वव्यापी हैं जो अतिवादी तत्वों का गढ है। हरियाणा में बेबुनियाद जाट आरक्षण कैसा रूप ले चुका है हम देख ही चुके हैं।
अब अतिवादी लक्षणों का दूसरा उदाहरण भी देख लें। भारत में उडीसा नाम का एक राज्य है। ये राज्य कभी भी Limelight में नहीं आता। अगर कोई मुझसे भारत के सारे राज्यों के नाम बताने को कहे तो यह राज्य सब से आखिर में याद आयेगा, कई बार तो याद ही नहीं आता। हर राज्य का नाम लेते ही वहां की तस्वीर दिमाग में छप जाती है, सिर्फ उडीसा को छोड कर क्यूंकि कोई तस्वीर है ही नहीं।
उडीसा की उप्लब्धियों की बात करें तो ये राज्य भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। यहां का HDI भी निराशाजनक है। शहरीकरण, इंडस्ट्रियलाइजेशन, रोजगार भी कोई संतोषप्रद नहीं हैॆं। अधिकतर गांवों में मूलभूत सुविधाएं भी नहींं हैं खासकर जनजातीय इलाकों में। अस्पताल 40-50 किमी दूर हैं ऐसे इलाकों में। अभी कुछ दिनों पहले एक ग्रामीण को अपनी पत्नी का शव 10 किमी कंधों पर ढोकर ले जाना पडा। अंदाजा लगाया जा सकता है किस हद तक स्थिति गंभीर है।
अब इन सब के पीछे दो कारण हैं और दोनो ही पूरी तरह वाजिब हैं।पहला तो राज्य प्रशासन ही नाकामयाब रहा है। वर्ष 2000 से बीजू जनता दल की सरकार है।पटनायक जी पूरी तरह फेल रहे हैं बतौर मुख्यमंत्री।
दूसरा है लोगों का अतिवादी रवैया। उन्हे इस चीज की आदत पड गयी है। वस्तुस्थिति के इस कदर अनुकूल हो गये हैं कि उन्हें सब कुछ नार्मल लगने लगा है। अब सरकार पर पूरा दोष भी कैसे मढा जाये जब लोग B.P.L. से ऊपर आना ही नहीं चाहते। और ऐसा भी नहीं है कि उडीसा में संसाधनों की कमी है। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है, समुद्र तट रेखा है। अगर पुणे,कोयंबटूर,हैदराबाद में सौफ्टवेयर हब बन सकता है तो भुवनेश्वर में क्यूं नहीं।
जरूरत बस बीमारू मानसिकता को बदलने की है और status quo की परंपरा को तोडने की।
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